आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
यदि आत्म-विज्ञान का महत्व समझ जाय और उस दिशा में बढ़ने का साहस
किया जाय तो साथ-साथ इतना और भी होना चाहिए। कि श्रद्धा विश्वास बनाये
रहने, उसे बढ़ाते चलने वाले आधार को भी किसी प्रकार उपलब्ध कर लिया जाय।
किसी निर्धारित नियुक्त गुरु के अभाव में अपनायी गई गतिविधियों के संबंध
में संशय ही बना रहता है। व्यक्तियों के कथनों के और ग्रन्थों के उल्लेखों
में असाधारण अन्तर और भारी मतभेद पाया जाता है। उनकी जितनी अधिक टटोल की
जाय, उतना ही सन्देह बढ़ेगा। किसे-सही किसे गलत माना जाय इसमें तर्क भी
कुछ काम नहीं देते। श्रद्धा को संशय खा जाता है, फलत: अनिश्चय की मन:
स्थिति बनी रहती है। एक क्रम अपनाने, दूसरे को छोड़ने का सिलसिला चलता
रहता है, फलत: दिग्भ्रान्त की तरह आगे बढ़ते-पीछे हटते, छोड़ते, चक्कर
काटते, समय गुजरता है। थकान और खीझ के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ता।
इस चक्रव्यूह से निकलना उन्हीं के लिए संभव हो सकता है, जो आत्मिक प्रगति
की दिशा में सुनिश्चित विधि-व्यवस्था अपना कर, उसे श्रद्धा एवं दृढ़ता के
साथ अविच्छिन्न रूप से अपनाये रह सकें। इसके लिए फिर गुरु-वरण की
आवश्यकता, अपनी अनिवार्यता सिद्ध करती हुई सामने आ खड़ी होती है।
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- आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता
- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान